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बाबूराव विष्णु पराड़कर — हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह को नमन

झांसी

हिंदी पत्रकारिता के जनक, विचार–क्रांतिकारी, निर्भीक संपादक और भाषा–सेवी बाबूराव विष्णु पराड़कर का जन्म 16 नवंबर 1883 को वाराणसी में हुआ था। आज उनके जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करते हुए यह समझना आवश्यक है कि पराड़कर केवल एक पत्रकार नहीं थे, बल्कि वे उन महान विभूतियों में थे जिन्होंने पत्रकारिता को जनजागरण और स्वतंत्रता संघर्ष का प्रबल हथियार बनाया।

बचपन से ही संघर्षों ने उनका साथ नहीं छोड़ा—कम उम्र में ही माता-पिता का देहावसान हुआ, परंतु परिस्थितियों ने उनके आत्मविश्वास को तोड़ा नहीं। मैट्रिक के बाद डाक विभाग की नौकरी मिली, परंतु राष्ट्रहित उनके मन में इतना प्रबल था कि उन्होंने नौकरी छोड़कर कलम को क्रांति का शस्त्र बना लिया। 1906 में ‘हिंदी बंगवासी’ से पत्रकारिता जीवन की शुरुआत हुई, जिसके बाद ‘हितवार्ता’ और ‘भारतमित्र’ जैसे प्रतिष्ठित पत्रों में उन्होंने अपनी संपादकीय क्षमता का लोहा मनवाया।

राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत उनके लेख ब्रिटिश सत्ता को बार-बार असहज करते रहे। 1916 में राजद्रोह का आरोप लगने पर उन्हें साढ़े तीन वर्ष जेल में रहना पड़ा, परंतु यह दमन भी उनकी लेखनी को रोक न सका। जेल से रिहा होकर 1920 में वे वाराणसी लौटे और यहीं से हिंदी दैनिक ‘आज’ के संपादन का दीर्घकालीन, ऐतिहासिक सफर शुरू हुआ। ‘आज’ को उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का मुखर प्रवक्ता बनाया। उनके लेख जनमानस में जोश भरते थे, सत्य और राष्ट्रभक्ति की लौ जगाते थे।

पराड़कर जी ने हिंदी पत्रकारिता की भाषा को नई दिशा दी, कठिन विषयों को सरल शैली में प्रस्तुत करने की कला विकसित की। शब्दों का ऐसा सुसंस्कार उन्होंने किया कि हिंदी समाचार लेखन की एक नई परंपरा विकसित हो गई। 1943 से 1947 के दौरान उन्होंने ‘संसार’ दैनिक का भी सफल संपादन किया और स्वतंत्रता के बाद भी पत्रकारिता को नैतिकता, साहस और सच्चाई के पथ पर बनाए रखने का काम किया। 12 जनवरी 1955 को वाराणसी में उनका निधन हो गया, परंतु उनके विचार आज भी पत्रकारिता को दिशा देते हैं।

आज, जब पत्रकारिता का एक बड़ा वर्ग विपरीत प्रवाहों से जूझ रहा है, सत्य और नैतिकता की कसौटी चुनौती के सामने खड़ी है, ऐसे समय में पराड़कर जी का जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि समाज को प्रकाश देने की निरंतर साधना है।

इसीलिए, पत्रकारिता की पतित होती श्रृंखला को रोकने और सच्चाई-निष्ठा की लौ को पुनर्जीवित करने का संकल्प ही उनके जन्मदिवस का वास्तविक सफल होगा। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है और यही वह मार्ग है जिसे अपनाकर पत्रकारिता फिर से जनता की आवाज बन सकती है।

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